मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

भारतीय रेलों की दुर्दशा

भारतीय रेलें : सारे जहाँ से अच्छी


भारतीय रेलों से मुझे प्यार है। गाय और गंगा की तरह रेलों को हमें माता मानना चाहिए। वे भी दिन–रात जनसेवा में जुटी रहती हैं। 90 करोड़ संतानों को अविचलित भाव से ढोती हैं। संतानें डिब्बों में यों खचाखच भरी होती हैं, ज्यों दड़बे में चूज़े। खिड़कियों में यो लटकी रहती हैं, जैसे पेड़ पर चमगादड़ें। फुटबोर्डों पर यों खड़ी रहती हैं, जैसे पतले तार पर नट। कुछ संतानों को छत पर बैठना अच्छा लगता है। वे छत पर ऐसे बैठी रहती हैं, जैसे सर्कस के कलाकार झूले पर। दरअसल हमारे इस गणतंत्र में डिब्बे के अंदर हवा का संकट हमेशा बना रहता है। यात्री को गंतव्य तक बिना हवा के काम चलाना पड़ता है। यह एक कठिन योग–साधना है। छत मुसाफ़िरों को इस तपस्या से बचाती है। दूसरी बात यह है कि टी. टी. चाहकर भी ऊपर नहीं पहुँच सकता। इससे भ्रष्टाचार की एक नई शाखा नहीं फूटने पाती। कुछ संतानें अत्यंत रोमांचप्रिय होती हैं। उन्हें दुर्गम स्थानों पर अतिक्रमण में आनंद आता है। वे बोगियों के बीच लगे बंपरों पर ही कब्जा कर लेती हैं। संभवत: वे रेल और घुड़सवारी दोनों का मज़ा एक साथ उठाना चाहती हैं।

भारतीय रेलों की सहनशीलता स्तुत्य है। धरती की तरह वे भी बड़ा कलेजा रखती है। संतानों द्वारा वे भी उत्पीड़ित हैं। अत: उन्हें भी माँ का दर्जा मिलना चाहिए। माँ का दर्ज़ा देकर हम किसी भी वस्तु पर ज़्यादती का अधिकार पा लेते हैं। गंगा हमारी माँ हैं। इसीलिए हमने उसे खूब प्रदूषित कर दिया है। रेलों को भी हमें पूज्य घोषित कर देना चाहिए। पूज्य घोषित कर देने से पूजित की दुर्गति करने में आसानी हो जाती है।

भारतीय रेलों की 'भारतीयता' मुझे प्रभावित करती है। इस देश की हर वस्तु पर पश्चिमी रंग चढ़ चुकी है। रेलें ही अपवाद रह गई हैं। वे भी हड़बड़ी में नहीं दिखाई देतीं। जल्दबाज़ी उनके स्वभाव में नहीं हैं। रेल–विभाग ने उनके विश्राम के लिए स्टेशन बनाए हैं। पर वे अपनी मर्ज़ी से चलती और रुकती हैं। कई बार स्टेशनों को अँगूठा दिखाते हुए आगे बढ़ जाती हैं। तब यात्रियों को ही उनके पीछे दौड़ना पड़ता है। स्वतंत्रता उन्हें बहुत प्रिय है। किसी टाइम–टेबल को वे स्वीकार नहीं करतीं। बंधी–बंधाई लीक पर चलना भी उन्हें पसंद नहीं। इसीलिए अकसर पटरी से उतर जाती हैं। रेल–विभाग इसे दुर्घटना समझता हैं। जबकि रेलें अपनी स्वतंत्रता की उद्घोषणा कर रही होती हैं।

भारतीय रेलों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। वे एक खुला विश्वविद्यालय हैं। संघर्षशीलता सिखाने में वे बेजोड़ हैं। उनमें सीट प्राप्त करना बड़ा ही वीरता का कार्य है। ओलंपिक में स्वर्ण पदक पाना आसान है। पर भारतीय रेलों में सीट पाना बहुत मुश्किल। एक डिब्बे में कितनी भेड़–बकरियाँ होंगी, यह तय है। पर इंसान कितने होंगे, यह तय नहीं हैं। पश्चिम में 'लेडिज–फर्स्ट' का शिष्टाचार प्रचलित है। भारतीय रेल–विभाग के शिष्टाचार में 'एनीमल–फर्स्ट' होते हैं।

भारतीय रेलों में ही यह सुविधा है कि आप जहाँ चाहें बैठ जाएँ। रेलों की ओर से कोई प्रतिबंध नहीं। सीट नहीं मिलती तो लगेज रखने का स्थान ही सही। वहीं हाथ–पैर मोड़कर बैठ जाइए। वहाँ भी 'हाउसफुल' हो तो फ़र्श हाज़िर है। रास्ते में ही पेटी–बिस्तर लगाकर पसर जाइए। सहयात्री आपको कष्ट दिए बिना ऊपर से आते–जाते रहेंगे।

भारतीय रेलों का यह दृश्य बड़ा ही मनोरम होता हैं। लगता है, अंतरिक्ष–यात्री यान में तैर रहे हैं। अभी आसमाँ और भी हैं। आप पंखों पर लटक कर यात्रा कर सकते हैं। वैसे भी भारतीय रेलों के पंखे हवा तो देते नहीं। शोर भर करते रहते हैं। पंखों पर जगह न मिले तो शौचालय शेष है। वहाँ आसन जमा लीजिए। अन्य यात्रियों की चिंता मत कीजिए। दरअसल भारतीय रेलों का पूरा कंपार्टमेंट ही शौचालय होता है। बैठने के इतने विकल्प विश्व की कोई रेल–सेवा नहीं दे सकती। हमें अपनी रेलों पर गर्व करना चाहिए।

भारतीय रेलों में प्रवेश करते समय आपका आत्मविश्वास विकलांग हो जाता है जबकि उतरते वक्त आप आत्मविश्वास से लबालब भरे होते हैं। सीट पाने की सफलता आपको लौह–पुरूष बना देती है। लगता है कि अब आप माउंट–एवरेस्ट भी फतह कर सकते हैं। रेल में प्रवेश करते समय आप महज़ टेकचंद थे। उतरे तो तेजसिंह नोकें में रूपांतरित होकर। भारतीय रेलों का यही कमाल है। वे आपको बहादुर बनाती हैं। जो भी ऊँची महत्वाकांक्षाएँ रखते हैं उन्हें भारतीय रेलों में अवश्य बैठना चाहिए। वे एक परीक्षा हैं।

रेलें हमें धैर्य का पाठ भी पढ़ाती हैं। वे आसानी से पकड़ में नहीं आतीं। यात्रियों के साथ लुकाछिपी खेलने में उन्हें आनंद आता है। उन्हें पकड़ने के लिए धूनी रमानी पड़ती हैं। प्लेटफ़ार्म पर डेरा डालना पड़ता है। वे बार–बार आपके साथ छल करती हैं। घोषणा होती है कि सिर्फ़ आधा घंटा लेट है। आप राहत की साँस लेते हैं। भारत में वे यात्री भाग्यवान माने जाते हैं, जो मात्र आधा घंटा इंतज़ार के बाद ट्रेन पा लेते हैं। नियत समय पर गाड़ी पाने का सौभाग्य तो यात्री को जीवन में एकाध बार ही मिल पाता है। हमारे देश में गाड़ी का समय पर आना ज़रूर एक विस्मयजनक समाचार होता है। लोग समाचार की सत्यता जानने के लिए बार–बार प्रेस में फ़ोन करते हैं।

आधा घंटा बाद नई घोषणा होती है कि विलंब की अवधि एक घंटा बढ़ गई है। आपकी राहत कराहट में बदल जाती है। आप चाय पी–पीकर किसी तरह यह समय भी काट लेते हैं। फिर पैंतालीस मिनट और आपसे इंतज़ार की अपेक्षा की जाती है। अब आपकी कराहट बौखलाहट की शक्ल ले लेती है। आप पाकेट–दर–पाकेट सिगरेट फूँकने लगते हैं। जंभाई पर जंभाइयाँ लेने लगते हैं। पर ट्रेन अगले पैंतालीस मिनट बाद भी नहीं आती। आपको घबराहट होने लगती है। इच्छा होती है ओवरब्रिज से छलाँग लगाकर जान दे दें। आगे फिर नई घोषणा होती है। आपको यकीन दिलाया जाता है कि गाड़ी बराबर चल रही है। इसलिए पहुँचेगी ज़रूर। अब घोषणाएँ आपके लिए बेमानी हो चुकी हैं। आप रेलवे की किसी बात पर यकीन नहीं करना चाहते। दिन, रात में ढल चुका है और आप यह भी भूलने लगे हैं कि कहाँ जाने के लिए निकले थे। फ़िल्म 'तीसरी कसम' के हीरामन गाड़ीवान की तरह आप भी तीन क़समें खाते हैं – अब कभी रेल यात्रा नहीं करेंगे। वोट उसी नेता को देंगे जो रेल से सफ़र न करता हो। कोई परिचित रेल से जाने लगे तो उससे संबंध विच्छेद कर लेंगे, और तभी ट्रेन उसी अंदाज़ में प्रकट होती है जैसे भक्त की परीक्षा के बाद भगवान प्रकट होते हैं। तब आप सारे कष्ट और क़समें भूलकर डिब्बे में प्रवेश करने के पराक्रम में व्यस्त हो जाते हैं।

भारतीय रेलों की सौंदर्यप्रियता भी मुझे मुग्ध करती हैं। हमारी रेलों का सौंदर्यबोध बहुत बढ़ा–चढ़ा है। वे जहाँ सुंदर झील–झरने देखती हैं, गिर पड़ती हैं। ज़्यादातर रेल दुर्घटनाएँ सुंदर प्राकृतिक स्थलों के आस–पास ही होती है। कुछ साल पहले केरल की अष्टमुदी झील में आयलैंड एक्सप्रेस गिर पड़ी थी। शायद झील का शीतल जल देख कर एक्सप्रेस से रहा नहीं गया। वह झील को स्वीमिंग पूल समझकर फ़िल्मी सुंदरी की तरह कूद पड़ी। कई बार सुंदर लैंडस्केप देख ट्रेनें पटरी से उतर जाती हैं। अकसर आशिकाना मौसम भी उन्हें बहका देता हैं। सुहाना सफ़र और मौसम हँसी हो तो भला कौन अपने को रोक सकता है। इस देश में सौंदर्य देखकर रसिक ही नहीं फिसलते, रेलें तक फिसल जाती हैं। अधिकांश दुर्घटनाओं के पीछे भारतीय रेलों का सौंदर्यप्रेम ही उत्तरदायी होती है। सरकार दुर्घटना रोकना चाहती है तो तमाम सुंदर दृश्यों को रेल के रास्ते से हटा देना चाहिए। रेलों का प्रकृति प्रेम मनुष्य को बहुत महँगा पड़ता है।

भारतीय रेलें बेरोज़गारों का सहारा हैं। रेलें आपकी संपत्ति हैं। 'हाथ की सफ़ाई के उद्योग' में यह वाक्य सदा अमर रहेगा। इसने लाखों बेरोज़गारों को रोज़गार दिया है। इस वाक्य से रेलों के सामानों की चोरी-चोरी नहीं रही, व्यापार हो गई हैं। लोग बेखटके सामान निकालते और बेचते हैं। रेलों ने चोरी को भी सम्माननीय उद्योग बना दिया है। इसके लिए इस उद्योग से जुड़े लोग भारतीय रेलों के सदा आभारी रहेंगे।

सार्वजनिक–संपत्ति होने का कारण ही भारतीय रेलों में बल्ब नहीं होते। लोग अंधेरे में यात्रा करते हैं। जिन्हें प्रकाश की ज़रूरत होती है, वे टॉर्च या मोमबत्ती साथ रखते हैं। ट्रेनों से पंखे भी ग़ायब रहते हैं। अत: भारतीय यात्री सफ़र में अख़बार पढ़ने के लिए नहीं, पंखा झलने के लिए ख़रीदते हैं। सीटों से गद्दियाँ ग़ायब रहती हैं। नलों में पानी का अता–पता नहीं होता। शीशे खिड़कियों को चकमा दे कर नौ–दो ग्यारह हो जाते हैं। कुल मिलाकर भारतीय रेलों में चक्के, ढाँचे, सीट और सवारियों के अलावा कुछ नहीं होता। वे भूत की तरह अंजर–पंजर नज़र आती हैं। फिर भी वे चलती हैं। सेवा के मार्ग से विमुख नहीं होतीं। यह चमत्कार केवल भारतीय रेलें ही दिखा सकती हैं।

हमारी रेलें बड़ी पुरातनप्रिय हैं। जो भी जीर्ण और जर्जर है – वह रेल विभाग को प्यारा है। इसीलिए समूचा रेल–विभाग एक विशाल पुरातात्विक संग्रहालय की तरह दिखाई देता है। उसके पुल, पटरी, डिब्बे, एंजिन – सभी पुरातात्विक महत्व के हैं। भारतीय रेलों का हर बारहवाँ डिब्बा कबाड़ में डालने लायक है। हर सातवाँ एंजिन पेंशन की पात्रता रखता है। हर पाँचवाँ पुल अंतिम यात्रा का मोहताज है। रेल–विभाग फिर भी सभी को सीने से लगाए हैं।

शायद वह अपनी हर संपत्ति को अनश्वर समझता है। इसीलिए वह ईस्ट–इंडिया कंपनी के ज़माने के कलपुर्जों को भी नहीं बदलता। भारतीय रेलों की यह पुरातनप्रियता अभिनंदनीय है।

सरकार हर बजट में रेल किराया बढ़ाती है। मौत भी उतनी अटल नहीं हैं, जितना भारतीय रेलों का किराया बढ़ना। सरकार बजट बनाती ही किराया बढ़ाने के लिए हैं। भारतीय रेलों का किराया ज्यों–ज्यों बढ़ता जाता हैं, सुविधाएँ त्यों–त्यों सिकुड़ती जाती हैं। सुविधाएँ कम करने के पीछे भी रेलों का एक दर्शन हैं। रेलें देशवासियों को आरामतलब नहीं बनाना चाहती। आरामतलब लोग देश पर बोझ होते हैं। किराए में वृद्धि से लोग श्रम के लिए प्रेरित होते हैं। भारत में बिना श्रम किए रेल की यात्रा असंभव है। किराया जुटाने के लिए श्रम, टिकट मिल जाए तो डिब्बे में प्रविष्ट होने के लिए श्रम, प्रविष्ट हो जाएँ तो सीट पर प्रतिष्ठ होने के लिए श्रम। मतलब यह कि श्रमवीर हुए बिना रेलों से निबाह नहीं हो सकता। भारतीय रेलें श्रम का पाठ पढ़ाने में अग्रणी हैं।

दुर्घटनाओं के लिए भी भारतीय रेलें विख्यात हैं। अपने व्यस्त और नीरस जीवन में दुर्घटनाएँ ही उनका एकमात्र मनोरंजन है। दुर्घटनाओं के माध्यम से संभवत: वे देश की आबादी घटाने में भी अपना विनम्र सहयोग प्रदान करती हैं। भारतीय रेलें न होतीं तो भारत की आबादी कब की एक अरब हो चुकी होती। जनसंख्या नियंत्रण में भारतीय रेलों की भूमिका अविस्मरणीय है। उनके बारे में प्रसिद्ध है कि आदमी एड्‌स से बच सकता है, अस्सी प्रतिशत जलकर भी उसके प्राण वापस आ सकते हैं, यहाँ तक कि दिल की रुकी धड़कन भी लौट सकती हैं, पर भारतीय रेलों में सफ़र करने वाले की जान की कोई गारंटी नहीं दी जा सकती। उसे आख़िरी सफ़र की तैयारी से ही भारतीय रेलों में बैठना चाहिए। किसी 'रेल से जले' शायर ने मिर्ज़ा ग़ालिब की तर्ज़ पर अर्ज़ किया है ––

ये रेलयात्रा नहीं आसाँ, इतना ही समझ लीजै
मौत के मुँह में से, मंज़िल को पाना

तू ही मेरा बाप

कौन किसका बाप



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हिंदुस्तानी माँ-बाप अपने बच्चों को डाँटने-फटकारने, उनका झोंटा खींचने, चपतियाने अथवा जमकर धुनाई करने, को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। मेरी माँ मुझसे कहा करती थीं कि मेरा तो सिद्धांत है कि बच्चों को खिलाओ सोने का निवाला, मगर देखो शेर की निगाह से। वास्तविकता यह थी कि मेरी माँ मुझे सोने का निवाला खिलाती थीं और मेरे पिता जी मुझे शेर की निगाह से देखते थे। कई बार अपने पिता जी की शेर की निगाह का शिकार होने की मुझे अभी तक याद है- एक बार तो जब वह क्रोधित होकर छड़ी लेकर मेरी ओर दौड़े थे तो मैंने बचने के लिए पलंग के चारों ओर चक्कर लगाना प्रारंभ कर दिया था और उन्होंने मेरा पीछा करना। इस बीच अगर मेरी माँ ने बीच में पड़कर मुझे बचाया न होता तो उन्होंने शेर की भाँति मुझे लहूलुहान ही कर दिया होता। फिर जब मैं प्रायमरी स्कूल में भर्ती कराया गया, तो वहाँ के अध्यापक की न केवल निगाह शेर वाली थी वरन उनकी मूँछें भी शेर वालीं थीं। इसके अतिरिक्त वह अपने हाथ में स्थाई रूप से इंची पैमाना नामक शस्त्र धारण किया करते थे। यदि किसी दिन इस शस्त्र के उपयोग करने का उचित अवसर प्राप्त होने में देरी होने लगे, तो वह इसे दो-चार बार अपनी मेज़ पर ठोंक कर हमारे दिलों में दहशत पैदा करते रहते थे।

मिडिल स्कूल तक पहुँचते-पहुँचते मैंने सोचा था कि संभवत: वहाँ के अध्यापक को पैमाना धारण करने का ऐसा जुनूनी शौक न हो, और मेरा अनुमान सही भी निकला क्योंकि वहाँ के मास्टर साहब हाथ में इंची पैमाना नहीं रखते थे परंतु उनके हृष्ट-पुष्ट हाथों में किसी न किसी बहाने किसी न किसी छात्र को झन्नाटेदार तमाचा रसीद करने के लिए हर वक्त खुजली पड़ती रहती थी। मेरी छठे दर्जे की परीक्षा चल रही थी और कृषि विज्ञान के प्रश्न पत्र में एक अटपटे शब्द को देखकर मैं कमरे में उपस्थित अध्यापक से उसका अभिप्राय पूछने लगा कि तब तक वही मास्टर साहब उस कमरे में प्रवेश कर गए। उन्होंने मुझसे अथवा उस अध्यापक से कुछ भी नहीं पूछा परंतु अपने बलशाली हाथ से मेरे दुर्बल गाल पर ऐसा भरपूर तमाचा जड़ दिया कि मैंने बिना किसी रोक टोक के वहीं खड़े अपना मूत्राशय पूरा खाली कर दिया था। यद्यपि उन मास्टर साहब की गरिमापूर्ण उपस्थिति में मेरी हास्यास्पद स्थिति पर खुलकर हँसने का साहस तो कोई न कर सका परंतु मुझे ऐसी चिपकू ग्लानि हुई थी कि आज तक चिपकी हुई है।

सुना है कि अब ज़माना बदल गया है और आजकल गाँवों के स्कूलों में अध्यापकगण छात्रों की धुनाई करने से कतराते हैं, क्योंकि ऐसा करने पर प्राय: छात्रों के माँ-बाप आकर अध्यापक महोदय को गरिया अथवा लठिया देते हैं; नहीं तो छात्रगण स्वयं या तो मास्टर साहब की कुर्सी की टाँग तोड़कर उसे चुपचाप ऐसा सटा देते हैं कि उस पर बैठते ही मास्टर साहब चारों खाने चित्त हो जाते हैं, अथवा उसमें पटाखे बाँधकर ऐसा विस्फोट करते हैं कि मास्टर बेचारे की खुद हवा बेरंग हो जाती हैं। पहाड़ी क्षेत्र में छात्रगण अभी इतने निडर नहीं हुए हैं पर वे भी यदा-कदा कुर्सी में बिच्छू घास लगा देते हैं, जिसके ज़हर से मुक्ति पाने के लिए मास्टर साहब को घंटों गोबर का लेप लगाकर हाय-हाय करते रहना पड़ता है।

पर ज़माने के बदलने की असलियत तो अमरीका में देखने को मिलती है, जहाँ माँ-बाप अपने जायों से ऐसे ख़ौफ़ खाते हैं जैसे मैं अपने बाप से खाता था। अमेरीकन कानून के अनुसार बच्चों की धौल धप्पड़ करना एक गंभीर अपराध है जिसके अंतर्गत ऐसा करने वालों को न केवल जेल के अंदर कर दिया जाता है वरन प्राय: माँ-बाप अथवा केवल माँ या केवल बाप (क्योंकि वहाँ अनेकों माँ-बाप के अविवाहित होने के कारण अथवा विवाहोपरांत संबंध-विच्छेद के कारण अथवा सिंगिल पेरेंट प्रथा अपनाने के कारण अनेक बच्चे केवल माँ अथवा केवल बाप द्वारा पाले जाते हैं) को बच्चे को पालने के अयोग्य मानकर उनके बच्चे को किसी चाइल्ड होम में रख दिया जाता है। स्कूलों में अध्यापिकाएँ बच्चों को उनके अधिकारों का ज्ञान कराते हुए यह सिखातीं हैं कि यदि तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें किसी तरह सताएँ, तो तुम नाइन-वन-वन - जो इमरजेंसी का टेलीफ़ोन नंबर है - पर फ़ोन कर दो जिससे पाँच-छ: मिनट में पुलिस आकर तुम्हारे माँ-बाप से तुम्हारी रक्षा करेगी और तुम्हारे माँ-बाप को सीखचों के पीछे कर देगी।

ऐसे आलतू-फालतू कानूनों का पालन करने में अमेरीकन पुलिस का कोई सानी नहीं है। अभी हाल में एक गोरी युवती अपनी चार साल की बच्ची को लेकर एक डिपार्टमेंटल स्टोर में सामान ख़रीदने गई थी। वहाँ उस बच्ची ने ऐसा उत्पात मचाया कि माँ का खून खौल गया, परंतु अन्य लोगों के सामने बेचारी माँ उस शैतान बच्ची को डाँट भी न सकी। फिर जब वह सामान लेकर बाहर कार पार्किंग स्थल में आई, तो उसने बच्ची को कार की पिछली सीट पर बिठाकर सबसे पहले अपने दाएँ बाएँ और आगे पीछे देखा और मैदान साफ़ पाकर बच्ची का झोंटा पकड़कर मुक्कों से उसकी धुनाई कर दी। पर बिचारी माँ को यह ध्यान नहीं रहा कि स्टोर वालों ने सिक्योरिटी हेतु कैमरे न केवल स्टोर के अंदर लगवाए हुए थे वरन बाहर पार्किंग स्थल में भी लगवा रखे थे। फिर क्या था सारी धौल-धप्पड़ की कार्यवाही सिक्योरिटी ड्यूटी पर तैनात व्यक्ति ने क्लोज़्ड-सर्किट टी व़ी पर देख ली और एक अच्छे अमेरीकन का कर्तव्य निभाते हुए पुलिस को टेलीफ़ोन कर दिया। पुलिस युवती की कार के नंबर की पहचान से उस युवती के यहाँ पहुँच गई और उसे, जो एक सिंगल पेरेंट थी, बंदी बना लिया और बच्ची को चाइल्ड केयर होम में रख दिया। प्रेस व टी. वी. वालों को अच्छा मसाला मिल गया और माँ द्वारा बच्ची की धुनाई के दृश्य को बार-बार टी. वी. पर ऐसे दिखाया जाने लगा जैसे यह ट्विन टावर्स के बंबार्डमेंट का दृश्य हो और उस बेचारी माँ की गिरफ्तारी टी. वी. पर ऐसे फ़ख़्र के साथ दिखाई जाती जैसे अमेरिकन पुलिस ने ओसामा बिन लादेन को पकड़ लिया हो। अब माँ बिचारी बार-बार रो-रो कर कहती है कि यह सच है कि शैतानी करने के कारण क्रोध में उसने अपनी बच्ची की घौल धप्पड़ कर दी थी, परंतु वह कोई दानव नहीं है। वह बच्ची उसकी एकमात्र संतान है जिसे वह अपनी जान से भी ज़्यादा प्यार करती है। परंतु लोगों का अनुमान है कि वीडियो में अंकित साक्ष्य के कारण उसे सज़ा होना लगभग निश्चित है।

अमेरिका में आज हालत यहाँ तक नाजुक हो गई है कि बच्चों को डाँट भर देने पर कोई-कोई बच्चा अपने बाप को धमकाने लगता है "शट अप डैड आइ ऐम गोइंग टु रिंग नाइन वन वन"। फिर बापजान की न केवल सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है वरन हफ़्तों माँ-बाप को बच्चे पर निगाह रखनी होती है कि बच्चा कहीं चुपचाप नाइन वन वन को फ़ोन न कर दे। और जब तक माँ बाप पूर्णत: आश्वस्त नहीं हो जाते हैं कि बच्चे ने उनके अपराध को मन से क्षमा कर दिया है तब तक उन्हें अच्छी नींद नहीं आती है।

अब आप ही बताएँ कि कौन किसका बाप है।

वोटर लिस्ट




वोटर लिस्ट में नाम न होने का सुख




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आजकल चुनावी माहौल में जिसको देखो वही वोटर लिस्ट में अपना नाम न होने का रोना रो रहा है, और अख़बारों में अपने नाम व पता मयफ़ोटो दर्ज करवा रहा है। पर मेरी समझ में नहीं आता है कि वोटर लिस्ट में नाम न होने से ऐसा कौन-सा आसमान सर पर गिर पड़ा है कि लोगबाग़ दिन रात हमारे चुस्त-दुरुस्त चुनाव-प्रशासन की धज्जी उड़ाने में जुटे हुए हैं - हाँ, अगर अख़बार वालों से ये शिकायतें करने का निहित उद्देश्य मुफ़्त में अख़बार में अपना नाम व फ़ोटो छपवाना है तब मुझे कोई आपत्ति नहीं है।

संदिग्ध निष्ठा वाले वोटरों के नाम वोटर लिस्ट में न आने देना एवं पहले से उपलब्ध ऐसे नामों को वोटर लिस्ट के संशोधन के दौरान कटवा देना सत्ताधारी दल का 'राजनैतिक कर्तव्य' होता है, कतिपय दल इस कर्तव्य को बड़ी महारत के साथ निभाते हैं। अब अगर आप की जाति के कारण प्रदेश शासन को यह संदेह हो कि आप अपना वोट प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी के अतिरिक्त किसी और को डाल सकते हैं, तो प्रदेश शासन ने आप का नाम वोटर लिस्ट से कटवाकर क्या अनुचित किया है? मुझको ही देखो कि मैं डाइरेक्टर जनरल, पुलिस के पद से दो वर्ष पूर्व रिटायर हुआ हूँ और पूर्णत: इग्नोर करने लायक नागरिक नहीं हूँ, क्योंकि कहावत है कि 'हाथी कितना भी दुबला हो जाए, पर बिटहा जैसा तो रह ही जाता है', पर जब मैंने 5 मई को एक आदमी भेजकर अपने मुहल्ले के विवेकखंड, गोमतीनगर के पोलिंग बूथ पर वोटर लिस्ट में अपना नाम ढूँढ़वाया तो मेरा व मेरी पत्नी का नाम नदारद था - स्पष्टत: मेरा जातिनाम देखकर शासन ने अपना 'राजनैतिक कर्तव्य' पूरी मुस्तैदी से निभाया था। वैसे वोटर लिस्ट में नाम न होने की बात जानकर मेरी पत्नी बड़े इत्मीनान से बोलीं थी, "चलो अच्छा हुआ, मैंने आम का हींगवाला अचार डालने को मुलायम-मुलायम आम मँगा रखे थे, जिनका अचार आज न डाल पाती तो ख़राब हो जाते।" सच तो यह है कि मेरे दिल को भी राहत ही मिली थी कि धूप में लंबी कतार में खड़ा नहीं होना पड़ा और पढ़ा-लिखा नागरिक होने के बावजूद वोट न डालने की आत्म-ग्लानि से भी अनायास मुक्ति मिल गई। और जहाँ तक कहीं शिकायत करने का सवाल है मैं कसमिया कह सकता हूँ जो मैंने किसी अख़बार या टी.वी. वाले से इसकी शिकायत की हो।

दूसरे दिन टहलते हुए मेरी मुलाकात अपने पड़ोसी से हो गई - वह भी ऐसी जाति के हैं जिनकी पार्टी-भक्ति पर सत्ताधारी दल को संदेह होना स्वाभाविक है। उन्होंने बताया कि वह वोट देने गए थे पर वहाँ वोटर लिस्ट में उनका वोट नहीं था यद्यपि उनकी पत्नी का वोट था, परंतु वह वोट देने नहीं गई थीं। उन्होंने यह भी बताया कि गत चुनाव के समय वे दोनों इसी पते पर रहते थे और उन दोनों ने वोट दिया था। उन्होंने आगे कहा कि उन्हें पता चला कि वोटर लिस्ट के संशोधन की प्रक्रिया में जहाँ तक संभव हुआ सत्ताधारी दल के स्वामिभक्त कर्मचारियों को ही लगाया गया था और उन्हें मौखिक निर्देश थे कि संदिग्ध निष्ठा वाली जातियों के वोटरों के नाम वोटर लिस्ट से यथासंभव काटना है।

मैंने जब शासन की इस नीयत पर गंभीरतापूर्वक विचार किया तो पाया कि शासन ने 'जनहित' का ध्यान रखकर ही ऐसी नीति अपनाई होगी। असलियत में हमारे वोटर तीन कैटेगरी के होते हैं -
पोलिंग-वोटर, जो चुचुआते पसीने में नहाते हुए भी चुपचाप कतार में घंटों खड़े होकर अपने नेता/अथवा बहिन जी/ को वोट देते हैं, दूसरे बाहुबलि वोटर, जिनके नेता कोई भूतपूर्व पहलवान एवं वर्तमान अखाड़ेबाज़ होते हैं, ये बाहुबलि वोटर ताल ठोंक कर अपने अलावा दूसरे वोटरों के वोट भी अपने उम्मीदवार के पक्ष मे डाल लेते हैं और तीसरे ड्राइंग रूम वोटर, जो वोटों की बात सबसे अधिक करते हैं परंतु वोट डालने को सबसे कम निकलते हैं। मैं समझता हूँ कि हमारे समाजसेवी शासन ने तीसरी कैटेगरी के वोटरों की इस सुखाकांक्षा को ध्यान में रखते हुए ही उनके नाम संशोधित वोटर लिस्ट में न आने देने के गुप्त निर्देश दिए होंगे।

उत्तर प्रदेश में लंबे प्रशासनिक अनुभव के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि अगर आप किसी बाहुबलि उम्मीदवार के चमचे नहीं हैं और फिर भी वोट डाले बिना आप को नींद नहीं आती है, तो आप को बिना देर किए अपने दिमाग़ का चेक-अप पागलों के डॉक्टर से कराना चाहिए, क्योंकि यदि आज आप वोट डालने को बेचैन हैं तो अंदेशा है कि कल आत्महत्या के लिए बेचैन हो जाएँ। आज के माहौल में वोट डालने की बेचैनी दिमाग़ की उसी प्रकार की कमज़ोरी की और संकेत करती है जिस प्रकार की कमज़ोरी किसी व्यक्ति को आत्महत्या हेतु प्रेरित करती है। इस हक़ीक़त से लखनऊ के बाशिंदे अच्छी तरह वाकिफ़ हैं। गत लोक सभा चुनाव में शासन द्वारा इस बात को ज़ोर-शोर से प्रचार किया गया था कि वोट डालना हमारा संवैधानिक कर्तव्य है और वोट डालने को हमें प्रेरित करने हेतु न केवल अख़बारों और टी.वी. में विज्ञापन छपते रहे थे वरन मोबाइल पर संदेश भी आते थे और कुछ भाग्यशाली मोबाइल धारकों को तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के स्वर में भी संदेश प्राप्त हुए थे, परंतु लखनऊ की जनता इस सबका गूढ़ अर्थ भली-भाँति समझती है, अत: केवल ''35 प्रतिशत'' वोटरों ने ही अपना वोट डालकर शासन को उपकृत किया था।

और कम से कम मैं तो वोटर के वोट डालने का प्रयत्न करने के बजाय घर के अंदर बैठकर टी.वी. पर तमाशा देखने को उसकी अक्लमंदी ही समझता हूँ क्योंकि हमारा ओवरलोयल-एडमिनिस्ट्रेटिव-सिस्टम सत्ताधारी दल के अथवा बाहुबली उम्मीदवार के अतिरिक्त किसी और के पक्ष में वोट डालने के प्रयत्न को प्राय: सेल्फइन्वायटेड-मिज़री बना देता है। मान लीजिए कि आप एक रेस्टलेस-कौन्शस वाले इंसान हैं और चुनाव में वोट डाले बिना आप को आपकी आत्मा चैन से नहीं बैठने देती है, और आप गर्मी से बचने हेतु कानों पर अंगौछा लपेटकर पोलिंग बूथ पर पहुँच जाते हैं, तो आप को वोट डालने का मौका मिले इससे पहले काफ़ी संभावना रहेगी कि घंटों धूप में खड़े होकर पसीना पोंछते रहने के बाद आप को बताया जावे कि आप का नाम इस बार की संशोधित वोटर लिस्ट में हैं ही नहीं, और आप के यह कहकर विरोध जताने पर कि 'गत विधानसबा चुनाव में तो मैं वोट डाल चुका हूँ।'

आप की कमअक्ली पर तरस खाते हुए आपसे प्रतिप्रश्न कर दिया जावे कि वोटर-लिस्ट में संशोधन होता किसलिए है? यदि आप का नाम वोटर लिस्ट में है भी, तो कोई शोहदा आप की वोट डालने हेतु आने की नादानी पर तंज करता हुआ आप से कह सकता है, "अंकल! क्यों खामख़्वाह लू खा रहे हैं। घर जाइए आप का वोट तो सबेरे ही पड़ चुका है।" फिर भी अगर आपका अपने मताधिकार के प्रयोग का जुनून अपनी ग़ैरत की हद से आगे निकल गया है, तो आप पीठासीन अधिकारी से अपनी शिकायत दर्ज़ कराने हेतु मिलना चाहेंगे, जिसे उस शोहदे के साथी धांधलीपूर्वक रोक देंगे और उनके इस सत्कार्य में वहाँ ड्यूटी पर लगाई गई 'दलगत' पुलिस उनकी भरपूर सहायता करेगी। अब अगर आप की संतुष्टि गरियाये जाने, झपड़ियाये जाने और ठंडा खाए बिना नहीं होती है तो आप पोलिंग बूथ पर हंगामा खड़ा करने के अपने मूलाधिकार का बेहिचक प्रयोग कर सकते हैं।

व्यक्तिगत रूप से मुझे उपलिखित किसी प्रकार की फ्रूटलेस-मिज़री को इन्वाइट करने का शौक नहीं है, अत: अपना नाम वोटर लिस्ट में न होने की बात ज्ञात होने पर मैंने शासन-प्रशासन को मन ही मन धन्यवाद दिया था और कूलर खोलकर सुख की नींद सो गया था।

शायेर मुंबई मैं

ग़ालिब बम्बई में



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दो चार दोस्तों के साथ मिर्ज़ा ग़ालिब स्वर्ग में दूध की नहर के किनारे शराबे तहूर (स्वर्ग में पी जाने वाली मदिरा) की चुस्कियाँ ले रहे थे कि एक ताज़ा–ताज़ा मरा बंबइया फ़िल्मी शायर उनके रू-ब-रू आया, झुक कर सलाम वालेकुम किया और दोजानू हो कर अदब से बैठ गया। मिर्ज़ा ने पूछा, 'आपकी तारीफ़?' बंबइया शायर बोला, 'हुज़ूर मैं एक हिंदुस्तानी फ़िल्मी शायर हूँ। उस दिन मैं बंबई के धोबी तालाब से आ रहा था कि एक शराबी प्रोडयूसर ने मुझे अपनी मारुति से कुचल डाला।'

ग़ालिब बोले, 'मुबारिक हो मियाँ जो बहिश्त नसीब हुआ वर्ना आधे से ज़्यादा फ़िल्म वाले तो जहन्नुम रसीद हो जाते हैं। ख़ैर, मुझे कैसे याद फ़रमाया।'
बंबइया शायर बोला, 'हुज़ूर, आप तो आजकल वाकई ग़ालिब हो रहे हैं। क़रीब तीस साल पहले आप पर फ़िल्म बनी थी जो खूब चली और आजकल आप 'सीरियलाइज़्ड' हो रहे हैं।' मिर्ज़ा ग़ालिब समझे नहीं। पास बैठे दिल्ली के एक फ़िल्म डिस्ट्रीब्यूटर के मुंशी ने उन्हें टीवी के सीरियल की जानकारी दी।

मिर्ज़ा गहरी साँस छोड़ कर बोले, 'चलो कम से कम मरने के बाद तो मेरी किस्मत जागी, मियाँ। वर्ना जब तक हम दिल्ली में रहे कर्ज़ से लदे रहे, खुशहाली को तरसे और कभी इसकी लल्लो–चप्पो की तो कभी उसकी ठोड़ी पर हाथ लगाया।'
'अरे हुज़ूर, अब तो जिधर देखो आप ही आप महक रहे है,' बंबइया शायर बोला। फिर फ़िल्मी शायर ने अपनी फ्रेंच कट दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा, 'अगर हुज़ूर किसी तरह खुदा से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर बंबई जा पहुँचें तो बस यह समझ लीजे कि सोने से लद कर वापस आएँ। मेरी तो बड़ी तमन्ना है कि आप दो चार फ़िल्मों में 'लिरिक' तो लिख ही डालें।' आस पास बैठे चापलूसों ने भी उसकी बात बड़ी की ओर न जाने कौन-सा फ़ितूर मिर्ज़ा के सर पर चढ़ा कि वे तैयार हो गए।

दूसरे दिन बाकायदा अल्ला मियाँ के यहाँ मिर्ज़ा और उनके तरफ़दार जा पहुँचे और कह–सुन कर उन्होंने अल्ला मियाँ को पटा लिया। जिसका नतीजा यह हुआ कि मिर्ज़ा ग़ालिब को तीस दिन की 'अंडर लीव' मय टीए डीए के दे दी गई और वे 'बहिश्त एअरलाइन' में बैठ कर बंबई के हवाई अड्‌डे पर जा उतरे।
°°°
बंबइया शायर ने उन्हें सारे अते–पते, और ठिकानों का जायज़ा दे ही रखा था, लिहाज़ा मिर्ज़ा ग़ालिब टैक्सी पकड़कर 'हिंदुस्तान स्टूडियोज़' आ पहुँचे। अंदर जाकर उन्होंने भीमजी भाई डायरेक्टर को उस स्वर्गवासी बंबइये शायर का ख़त दिया। भीम जी भाई उन्हें देखते ही अपने चमचे कांति भाई से बोल, क्या नसीरूद्दीन शाह का कांट्रैक्ट कैंसिल हो गया, कांतिभाई। ये नया बागड़ू मिर्ज़ाग़ालिब के मेकअप में कैसे?

कांतिभाई ने अपने चश्मे से झाँक कर देखा और बोले, 'वैसे मेकअप आप अच्छा किया है पट्‌ठे का। रहमान भाई ने किया लगता है। पर ये इधर कैसे आ गया? मिर्जा ग़ालिब का शूटिंग तो गुलज़ार भाई कर रहा है।'
तभी मिर्ज़ा ग़ालिब बोले, 'सहिबान, मैं एक्टिंग करने नहीं आया हूँ। मैं ही असली मिर्ज़ा गालिब हूँ, मैं तो फ़िल्म में शायरी करने आया हूँ जिसे शायद आप लोग 'लिरिक' कहते हैं।'
भीम जी भाई बोले, 'अच्छा, तो तुम लिरिक लिखते है।'
मिर्ज़ा बोले, 'जी हाँ।'

भीम जी भाई न फ़ौरन ही अपने असिस्टेंट मानिक जी को बुलाया और हिदायत दी, 'अरे सुनो मानिक जी भाई। इसे ज़रा परखो। 'लिरिक' लिखता है।' मानिक जी भाई ने ग़ालिब को घूर कर देखा और कहा, 'आओ मेरे साथ।'
मानिक जी ग़ालिब को बड़े हाल में ले गए जहाँ आधा दर्जन पिछलग्गुए तुकबंद बैठे थे। मानिक जी बोले, 'पहले सिचुएशन समझ लो।'
मिर्ज़ा बोले, 'इसके क्या मानी, जनाब।'
मानिक जी बोले, 'पहले हालात समझ लो और फिर उसी मुताबिक लिखना है। हाँ तो, हीरोइन हीरो से रूठी हुई बरगद के पेड़ के नीचे मुँह फुलाए बैठी है। उधर से हीरो आता है सीने पर हाथ रख कर कहता है कि तूने अपने नज़रिये की तलवार से मेरे दिल में घाव कर दिया है। अब इस सिचुएशन को ध्यान में रखते हुए लिख डालो एक गीत।'
मिर्ज़ा ग़ालिब ने काग़ज़ पर लिखना शुरू किया और पाँच मिनट बाद बोले, सुनिए हज़रत, नहीं ज़रियते राहत ज़राहते पैकां
यह ज़ख्मे तेग है जिसको कि दिलकुशा कहिए
नहीं निगार को उल्फ़त, न हो, निगार तो है
रवानिए रविशो मस्तिए अदा कहिए

मिर्ज़ा की इस लिरिक को सुनते ही मानिक जी भाई का ख़ास चमचा पीरूभाई दारूवाला बोला, 'बौस, ये तो पश्तो में गीत लिखता है। मेरे पल्ले में तो कुछ पड़ा नहीं, तुम्हारे भेजे में क्या घुसा काय?'
मानिक जी बौखला कर बोले, 'ना जाने कहाँ से चले आते हैं फ़िल्मों में। देखो मियाँ इस तरह ऊल-जलूल लिरिक लिख कर हमें क्या एक करोड़ की फ़िल्म पिटवानी है।'
पर हुज़ूर, मिर्ज़ा बोले, 'मैं आपको अच्छे पाए की शायरी सुना रहा हूँ।'

ये पाए की शायरी है या चौपाये की, मानिक जी लाल पीले होकर बोले, 'तुमसे पहले भी एक पायेदार शायर आया था–क्या नाम था उसका – हाँ, याद आया,जोश। वह भी तुम्हारे माफ़िक लंतरानी बकता था और जब उसकी अकल ठिकाने आई तब ठीक-ठीक लिखने लगा था।'
पीरूजी दारूवाला बोला, 'उसका वह गाना कितना हिट गया था बौस– हाय, हाय। क्या लिखा था ज़ालिम ने, मेरे जुबना का देखो उभार ओ पापी।'
ग़ालिब बोले, 'क्या आप जोश मलीहाबादी के बारे में कह रहे है? वो तो अच्छा ख़ासा कलाम पढ़ता था। वह भला ऐसा लिखेगा।'
'अरे हाँ, हाँ। उसी जोश का मैं ज़िक्र कर रहा हूँ,' मानिक जी भाई बोला, 'बंबई की हवा लगते ही वह रोगनजोश बन गया था।'
तभी पीरूभाई बोले, 'देखो भाई, हमारा टाइम ख़राब मत करो। हमें कायदे के गीत चाहिए। ठहरो तुम्हें कुछ नमूने सुनाता हूँ।'
पीरूभाई दारूवाला ने पास खड़े म्यूज़िक डायरेक्टर बहरामजी महरबानजी को इशारा किया। तभी आर्केस्ट्रा शुरू हो गया। पहले तो आर्केस्ट्रा ने किसी ताज़ा अमरीकन फ़िल्म से चुराई हुई विलायती धुन को तोड़ मरोड़ कर ऐसा बजाया कि वह 'एंगलोइंडियन' धुन बन गई। उसके बाद हीरो उठा और कूल्हे मटका–मटका कर डांस करने लगा। हीरोइन भी बनावटी ग़ुस्से में उससे छिटक–छिटक कर दूर भागती हुई नखरे दिखाने लगी। तभी माइक पर खड़े सिंगर ने गाना शूरू कर दिया – तेरे डैडी ने दिया मुझे परमिट तुझे फँसाने का
इश्क का नया अंदाज़ देखकर ग़ालिब बोले, 'अस्तग़फरूल्ला, क्या आजकल हिंदुस्तान में वालिद अपने बरखुरदार को इस तरह लड़कियाँ फँसाने की राय देते हैं?'
पीरूभाई बोले, 'मियाँ वो दिन गए जब ख़लील खाँ फाख़्ते उड़ाते थे। हिंदुस्तान में तरक्की हम लोगों की बदौलत हुई है। हमारी ही बदौलत आज बाप बेटे शाम को एक साथ बैठ कर विस्की की चुस्की लेते हैं। होटलों में साथ-साथ लड़कियों के संग डिस्को करते है।'
मानिक जी भाई बोले, 'इसे ज़रा चलत की चीज़ सुनाओ, पीरूभाई।'
पीरूभाई ने फिर म्यूज़िक डायरेक्टर को इशारा किया और आर्केस्ट्रा भनभना उठा। ले जाएगे ले जाएगे, दिल वाले दुल्हनिया ले जाएँगे'
ग़ालिब गड़बड़ा गए। 'क्या आजकल शादी के मौके पर ऐसे गीत गाए जाते हैं?'
पीरूभाई बोले, 'मियाँ, गीत तो छोड़ो, बारात में दूल्हे का बाप और जो कोई भी घर का बड़ा बूढ़ा ज़िंदा हो, वह तक सड़क पर वह डांस दिखाता है कि अच्छे-अच्छे कत्थक कान पर हाथ लगा लें। अरे मर्दों की छोड़ो दूल्हे की दो मनी अम्मा भी सड़क पर ऐसे नाचती है जैसे रीछ। देखो नमूना।'
और मिर्ज़ा को आधुनिक भारतीय विवाह उत्सव का दृश्य दिखलाया गया, जिसमें दूल्हे के अब्बा–अम्मी दादा–दादी बिला वजह और बेताले होकर कूल्हे मटका-मटकाकर उलटी सीधी धमाचौकड़ी करने लगे।

मिर्ज़ा बोले, 'ऐसा नाच तो हमने सन सत्तावन के गदर से पहले बल्लीमारान के धोबियों की बारात में देखा था।'
पीरूभाई दारूवाला खिसियाकर बोले, 'ऐसी की तैसी में गए बल्लीमारान के धोबी मियाँ। आजकल तो घर-घर में यह डिस्को फलफूल रहा है। तभी मुस्कराते हुए मानिक भाई ने कहा, 'अरे, ज़रा पुरानी चाल की चीज़ भी सुनाओ।'
अबकी बार हीरोइन ने लहंगा फरिया पहन कर विशुद्ध उत्तर परदेशिया लोकनृत्य शैली की झलक दिखलाई और वैसे ही हाव–भाव करने लगी। तभी माइक पर किरनबेन गाने लगीं, झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में गीत ख़त्म होते ही मानिक भाई बोले, इसे कहते हैं लिरिक और म्यूज़िक का ब्लेंडिंग। इसके मुकाबले में लिखो तो जानें। बेमानी बक–बक में क्या रखा है।'
यह सुनकर ग़ालिब का चेहरा लाल हो गया। सहसा वे बांगो–पांगो और उसके बगल में बैठे ढोल वाले से ज़ोर से बोले—
तू ढोल बजा भई ढोल बजा।
यह महफ़िल नामाक़ूलों की।
लाहौल विला, लाहौल विला।

उनकी इस लिरिक की चाल को बांगो वाले ने फौरन ही बाँध लिया और उधर आर्केस्ट्रा भी गनगना उठा। मानिक जी भाई और पीरू भाई की बाँछें खिल गईं और वे सब मग्न होकर बक़ौल ग़ालिब 'धोबिया–नृत्य' करने लगे। और जब उनकी संगीत तंद्रा टूटी तो मानिक भाई बोले, वाह, वाह क्या बात पैदा की है ग़ालिब भाई।
पर तब तक ग़ालिब कुकुरमुत्ता हो और स्टूडियो से रफूचक्कर हो कर बहिश्त एअर लाइन की रिटर्न फ्लाइट का टिकट लेकर अपनी सीट पर बैठे बुदबुदा रहे थे —
न सत्ताईस की तमन्ना न सिले की परवाह
गर नहीं है मेरे अशआर में मानी न सही।

शराब का गोलगप्पा

ye rajasthan ki khasiyet rehi hai ki yahan per mehaman kobhagwan mana jata hai lekin pichle kuch verso se rajasthan main bhale hi khana nahi milta lekin sharab jarur mil jati hai ye sab vesundra ki meherbani hai
thanx.

'हाऊ स्वीट' उसने एक करारा गोल गप्पा मसालेदार पानी सहित गटकते हुए अपने होठों को चटकारे की मुद्रा में रगडते हुए कहा। एक लंबी-सी हिचकी का मधुर संगीत वातावरण में फैल गया। हिचकी से उसके होंठ खुल गए। जैसे दो प्रेमियों के सार्वजनिक आलिंगन को भारत में रहने वाला ज़ालिम ज़माना स्वीकार नहीं करता, वैसे ही मसाले और लिपस्टिक से रचे बसे होठों के इस नमकीन मिलन को हिचकी ने पसंद नहीं किया। हिचकी रूपी भयंकर गोले की भारी आवाज़ जब उसके नाजुक गले से निकली तो मैंने घबरा कर उसकी ओर देखा।

हिचकी के झटके से झटका खा कर जब उसकी सुराहीदार गर्दन ऊपर उठी तो गोल गप्पे का मटमैला पानी उसके हलक से नीचे उतरता दिखाई दिया। मैं समझ गया कि बेगम नूरजहाँ के गले से शर्बत का रंग कैसे बाहर दिखाई देता होगा। गोल गप्पे के कमाल से उसकी आँखों में गुलाबी डोरे तैरने लगे थे। गंगा यमुना अपना बाँध तोड़ कर बह निकलने वाली ही थीं। उसने अपना मुँह थोड़ा-सा घुमा कर मेरी नज़रों से दूर कर लिया। लगा तेज़ मसाले से उसके कानों में अवश्य ही सनसनाहट हो रही होगी क्योंकि उसके हीरे जड़ित कुंडल किसी बेचैन पंछी की तरह से फड़फड़ा रहे थे।

उसने धीरे से सिसकारी भरते हुए गोल गप्पे खिलाने वाले को कहा, भैया! सोंठ थोड़ा ज़्यादा भरना, ज़रा मसाला भी थोड़ा-सा और तेज़ करना। भारतीय मसालों के तीखेपन पर मैं वाह कह उठता, कि मुझे फिर से "हाऊ स्वीट" सुनाई दिया।
अनायास ही मेरे मुँह से निकला, "मैडम यह तीखे, नमकीन अथवा खट्टे तो हो सकते हैं, 'स्वीट' तो हरगिज़ नहीं। बार-बार आपका 'हाऊ स्वीट' कहना कम से कम अपने गले से तो नहीं उतरा। वैसे भी आपकी पतली हालत देख कर यह तो कतई नहीं लगता कि मामला कहीं कुछ मीठा-मीठा भी है।" मैंने अपनी मिष्ठान प्रिय जिह्वा को अपने रुखे-सूखे होंठों पर फिराते हुए कहा।
"आप नहीं समझेंगे भाई साहब," उसने आँखों में एक विशेष चमक पैदा करते हुए कहा, "मैं 'इंडियन' नारी न होती तो 'यूरेका' 'यूरेका' चिल्लाती हुई-गोल गप्पे का यह पात्र हाथ में लिए हुए भाग लेती यहाँ से वाणिज्य मंत्रालय तक।"
मैं सिर से पाँव तक प्रश्न चिह्न बन गया।
मेरी इस पतली हालत पर दया करते हुए वह बोली, "आप नहीं जानते कि 'इंडियन साल्टीज़' का कितना बड़ा बाज़ार है 'फोरेन' में और कितनी 'बिग' संभावनाएँ छिपी पड़ी हैं इस छोटे से नन्हें-मुन्ने और प्यारे से गोल गप्पे में। इसे आप मामूली गोल गप्पा न समझें, पूरी दुनिया में धूम मचाने की क्षमता है आपके इस भारतीय 'पेय-दए-खाद्य' पदार्थ में। 'आई मिन ड्रिंक-दए-फूड़' आप समझे ना।" उसने झेंपते हुए कहा, "कभी-कभी न चाहते हुए भी यह 'इंडियन' भाषा हिंदी मुँह पर आ जाती है। 'आय एम सॉरी'। हाँ तो मैं यह कह रही थी की यह इस देश का 'मोनोपली आईटम' है। 'मल्टीनेशनल प्रोडक्ट' बनने की पूरी-पूरी संभावनाएँ हैं इसमें।"
फिर बोली, "कितने शर्म की बात है कि आज तक यह बात किसी के दिमाग़ में नहीं आई। 'वट ऐ नेशनल शेम' आई भी तो मेरे इस ठस्स 'माइंड' में। इसी को कहते हैं भाग्य का सितारा चमकना-इसका 'क्रेडिट' मुझे ही मिलना था न। भाग्य का 'डोर' क्या कहते हैं दरवाज़ा मुझ पर ही खुलना था न।"

मैं अवाक उसके नाक से बहते हुए पानी को देख रहा था जिसे वह अपनी अत्यंत नाजुक उँगलियों में लपेटे हुए नन्हें से रुमाल द्वारा बार-बार साफ़ कर रही थी। नाक का नुकीला भाग तोते की चोंच की तरह से लाल हो उठा था। मुझे लगा जैसे किसी ने लाल मिर्च को उसके होठों के ऊपरी हिस्से पर चिपका दिया हो। या फिर उसने लिपस्टिक को होंठों की बजाय नाक पर लगा लिया हो।
अपनी ही धुन में मगन वह जैसे स्वयं से बात कर रही थी। मेरी हस्ती तक को भुला दिया था जैसे उसने।
बोली, "धूम मच जाएगी, जब गोल गप्पा 'पारलर्स' की 'चेन' मैं अमरीका और यूरोप के नगर-नगर में खुलवा दूँगी। वाह! कैसा नज़ारा होगा जब बड़ी-बड़ी मोटर गाड़ियों की कतारें मेरे द्वारा स्थापित गोल गप्पों के 'स्टालों' के बाहर लगी अपनी बारी आने का इंतज़ार करेंगीं। पर्यटकों को इस भारतीय व्यंजन का दर्शन करवाने के लिए पर्यटन विभाग द्वारा टिकट लगाई जाएगी। पर्यटकों से भरी बसों की लाइन लग जाएगी। भारत की तरह पश्चिमी देशों में लाइन तोड़ना गौरव की बात नहीं समझी जाती जिसका मुझे भरपूर लाभ मिलेगा। लंबी लाइनों की लंबाई नापना भी काफ़ी सरल होगा। गोल गप्पों के लिए लगी लंबी-लंबी लाइनें सहज ही मेरा नाम 'गिनिज़ बुक आफ वर्ल्ड रिकाडर्स' में दर्ज कराने में सक्षम होंगीं। इस बात के सर्वेक्षण कराए जाएँगे कि रार्ष्ट्रीय राजमार्गों की तुलना में ये लाइनें कितनी अधिक लंबी रहीं। सभी स्थानों की लंबाई का कुल योग किसी भी देश की सड़कों की लंबाई से अधिक होगा ही इसमें तो मुझे तनिक भी संदेह नहीं है। भारत की तो गिनती ही क्या है जहाँ राजमार्गों के नाम पर नक्शों में दो चार पगडंडियों को दिखा दिया जाता है।"
"यदि मेरी योजना की प्रगति में कोई अंतर्राष्ट्रीय षडयंत्र आड़े नहीं आया तो शीघ्र ही दुनिया की सड़कों पर 'ड्राईव इन गोल गप्पा मोटल्स' दिखाई देने लगेगें तब आप को पता लगेगा कि इस पेय-कम-खाद्य का क्या महत्व है। इस गोल और खोखली चीज़ में कितना ठोस तत्व है।" वह अपनी ही धुन में मगन हो गई थी जैसे।
मुझे कुछ बोलने का अवसर दिए बिना ही उस सुंदरी ने अपने नयन चारों ओर घुमाए और बोली, "इसमें कितनी संभावनाएँ छिपीं हैं जिन्हें हमारे पूर्वजों ने बेकार ही जाने दिया। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपनी प्रतिभा को पहचानते ही नहीं। पहचान लें तो मानते नहीं। जैसे भारतीय डाक्टरों ने अपनी विद्वता की धूम पूरे 'वर्ल्ड' में मचा दी है, वैसे ही ये गोल गप्पे अपने स्वाद का सिक्का जमा देगें। निश्चित रूप से आदत न होने के कारण इनसे कुछ रूढ़िवादी विदेशियों का गला ख़राब हो सकता है। परंतु अपना तो उसमें भी लाभ ही लाभ है। गोल गप्पों से उत्पन्न बीमारियों के विशेषज्ञ स्वाभाविक रूप से भारतीय डाक्टर ही होंगे। इससे उनकी जमी जमाई 'प्रैक्टिस' में चार-चाँद लग जाएँगे। किसी भी अमीर व्यक्ति के 'केस' को 'इंडिया रैफर' किया जाएगा। भारतीय हस्पतालों में पश्चिमी देशों से आए हुए मरीज़ वैसे ही दिखाई देंगे जैसे लंदन के 'एयरपोर्ट' के फ़र्श पर सोये हुए 'एशियन'। कितना ज़ोरदार धंधा जम जाएगा 'मेडिकल कन्सलटेंसी' का। विदेशी मुद्रा से हमारे देश के बैंकों की बोरियाँ भर जाएँगीं। कई नेताओं की हर्षद के सहारे पीढ़ियाँ तर जाएँगे।

'लहर' वालों ने बीकानेरी भुजिया के निर्यात की योजना कोई यों ही नहीं बना ली-बहुत समझ बूझ कर और 'मार्किट सर्वे' करने के बाद ही बनाई है। भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि उनका ध्यान गोल गप्पों की तरफ़ नहीं गया, नहीं तो 'सैमी ड्रिंक' के इस अछूते क्षेत्र में उनका मुक़ाबला करना मेरे लिए ज़रा कठिन ही पड़ता। अमरीका वाले भी न जाने किस मिट्टी के बने हैं। कंबख़्त नीम, तुलसी, हल्दी और बासमती तक का 'पेटेंट' करवा रहे हैं। गोल गप्पों का करवा लेते तो मैं क्या करती, तब-इस मसालेदार पानी को किस पात्र में भरती।"
मैंने कहा, ''परंतु अभी तक मीठे गोल गप्पे अर्थात 'हाऊ स्वीट' वाली बात तो मेरी गंजी खोपड़ी के ऊपर से फिसलती चली जा रही है, थोड़ी चाशनी मिलाओ तो बात बने, बिना बाँस का तंबू कहीं तो थोड़ा बहुत तने।''
'हैं न पापा बुद्धू' के अंदाज़ में वह बोली, आप भी भाई साहब निरे बुद्धू हैं, आयात निर्यात के क्षेत्र में सिर्फ़ कद्दू हैं। ये तो मैंने अपने भीतर छिपी 'हैप्पीनेस' का इज़हार किया था, कुछ-कुछ वातावरण को अपने मन के मुताबिक़ तैयार किया था। वास्तव में मैं मन ही मन गोल गप्पों के भारी निर्यात के आर्डरों का लेखा-जोखा लगा रही थी, सोच रही थी दुनिया तेज़ी के साथ इक्कीसवीं सदी में पहुँच गई है, 'पैकिंग' के क्षेत्र में नई-नई खोजों से क्रांति आ रही है। सभी जगह महसूस की जा रही है काग़ज़ की कमी, पर्यावरण से उड़ती जा रही है कुदरती नमी। प्लास्टिक के कूड़े से हर विकसित देश बुरी तरह से परेशान है। विकासशील देशों की भले ही आज भी प्लास्टिक ही शान है। ऐसी अवस्था में यदि व्हिस्की को गोल गप्पों में भर कर 'सर्व' किया जाए तो विश्व के शराबखानों और 'पबों' में एक ऐसी मसालेदार क्रांति आ जाएगी जो 'हरित' और 'श्वेत' क्रांति के छक्के छुड़ा देगी और मुझे करोड़पति ही नहीं अरबपति बना देगी।
आख़िर इसी तर्ज़ पर ही तो 'साफ्टी कोन' का प्रचलन हुआ था। काग़ज़ तथा प्लास्टिक के कप में आईसक्रीम भरने का झंझट समाप्त करने को ही हुआ था इसका प्रयास, गोल गप्पे से मुझे उससे कहीं अधिक है आस। जब मेरे 'पार्लर्स' में गोल गप्पों में भर-भर कर बेची जाएगी शराब, तो विश्व बंधुत्व और लड़ाई का कहाँ रह जाएगा हिसाब। अंतर्राष्ट्रीय सदभावना की एक अनोखी मिसाल होगी, मेरा मतलब है 'इंटरनेशनल को-आर्डिनेशन' का तैयार माल होगी। भारतीय संस्कृति के प्रतीक गोल गप्पे और पश्चिमी सभ्यता की निशानी शराब-दो संस्कृतियों का अदभुत मिश्रण होगा लाजवाब। अंतर्राष्ट्रीय सदभावना के लिए मुझे मिलेंगे ढेरों ढेर ईनाम, दुनिया के कोने-कोने में होगा मेरा नाम। हो सकता है नोबल ही आ गिरे झोली में, भारत रत्न तो मिला ही समझो सिर्फ़ ठिठोली में।

गोल गप्पे के कसे बदन में लहराती इठलाती शराब, सुरा सुंदरी के रूप में जब व्यक्ति के मुँह में प्रवेश करेगी जनाब, तो बदन कैसा सनसनाएगा, उसका अनुमान आप सरीखा मिष्ठान्न प्रेमी पोंगा पंडित कौन-सा लड्डू खाकर लगाएगा। आप तो आज तक चाट पकौड़ी से आगे जाकर जी नहीं सके, गोल गप्पे में कोका कोला तक भर कर पी नहीं सके।''
''विदेशों में शराब के साथ 'साल्टीज़' की कितनी माँग है, यह आप तब जानेगें जब मेरा यह 'टू-टू-वन' धूम मचा देगा, घर-घर को अपना दीवाना बना देगा। शाम होते ही जैसे हमारे देश के महानगरों की युवतियाँ चाट की दुकानों के बाहर मधु की मक्खियों की तरह से भिनभिनाने लगती हैं, बिना पिये ही डगमगाने लगती हैं। वैसे ही 'गोल गप्पा बार' लोगों को बिना आवाज़ के बुलाएँगे और हर विदेशी को मदमस्त बनाएँगे। भारतीय 'पोटेटो', पटेल्स और मोटल्स की पंक्ति में गोल गप्पों यानी 'गोपल्स' का नाम भी जुड़ जाएगा, विदेशी नमकीन का हर रंग उड़ जाएगा। विदेशी बाज़ारों में भारतीय गोल गप्पों की 'सेल' के जब होंगे बड़े-बड़े अनुबंध, कैंब्रिज और आक्सफोर्ड में लिखे जाएँगे इस पर शोध प्रबंध। तब आप जानेगें मैंने इसे क्यों चाहा था, मिर्च से जल रहे मुख से हाउ स्वीट कैसे कहा था।''
''इस समय भले ही मसालों से सनसनाते मेरे आँख कान भट्ठी की जगह भट्टे हो रहे हैं, इसकी खटाई से दाँत खट्टे हो रहे हैं। छाती जल-जल कर भी कुछ तौल रही है, अपने दिल से कुछ और ही बोल बोल रही है। भविष्य की कल्पना की मिठाई मेरे मुँह में मिश्री-सी घोल रही है। उपभोक्ता उद्योग के क्षेत्र में गोल गप्पे का उज्ज्वल भविष्य मैं सामने दीवार पर पढ़ रही हूँ, 'आई मिन राईटिंग ऑन द वाल' की सुखद सीढ़ियाँ चढ़ रही हूँ। विश्व अर्थ व्यवस्था का केंद्र बनकर ये करेगा कमाल, इसका हर चहेता इसी सदी में होगा माला-माल। अभी तो लगता है ये छोटा सा गोल गप्पा, बाद में हर विदेशी नोट पर इसी का होगा ठप्पा।''

उसने अपना वाक्य किया पूरा, फिर थोड़ा-सा मुझे घूरा। भविष्य की ओर टकटकी लगाए एक गोल गप्पा मुझे थमाया, और दूसरा होंठों के भीतर मुँह में दबाया। बोली, ''चाहते हो यदि इक्कीसवीं सदी में जाना तो समझ लो वह होगा गोल गप्पों का ज़माना। अभी से 'पेटेंट' की अर्ज़ी लगवाऊँगी, मेरा साथ दोगे तो एक 'सोल एजेंसी' आपके नाम भी करवाऊँगी। जो दिया है वह गोल गप्पा खाओ, फिर मुझसे 'पार्टनर' वाला हाथ मिलाओ। दोनों मिलकर करेंगे मोटा धंधा, ज़माना कल भी था और आगे भी रहेगा अंधा। जो इसका लाभ उठाता है, वही कुछ धन दौलत कमाता है।''
उसने अपना सारा आर्थिक दर्शन मुझे संक्षेप में समझाया और हमने चीयर्स के स्थान पर 'हाऊ स्वीट' कहकर एक-एक और गोल गप्पा मुख द्वार की ओर बढ़ाया।

प्यार किया तो डरना क्या

हास्य व्यंग्य



प्यार किया तो मरना क्या?


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जब मैं बीस बरस का था तो एक ज्योतिषी ने मेरा हाथ देख कर मेरी माँ से कहा था कि 'यह चालीस बरस पार कर ले तो बहुत समझो।' मेरे ऊपर इस घोषणा का कोई ख़ास असर नहीं पड़ा था क्योंकि मेरा स्वास्थ्य बहुत ख़राब था। हर समय कफ़ की शिकायत रहती थी, दातों में पायरिया था। मैंने एक–एक कर के दाँत निकलवाना शुरू कर दिया। नियमित रूप से प्रात: और सायं आठ–दस किलोमीटर टहलना, दौड़ लगाना, नीम की पत्तियाँ चबाना, बकरी का दूध पीना तथा हरे पत्तों की सब्ज़ियों का सेवन चालू कर दिया।

इन सब चीज़ों का अनुकूल प्रभाव हुआ और उमर चालीस को पार कर गई। पुस्तकालय में बैठ कर नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन, विद्वान, कलाकार और महात्माओं के सत्संग इत्यादि के कारण मेरा झुकाव साहित्य संगीत और कला की ओर होने लगा। कवि सम्मेलनों के निमंत्रण आने लगे, फिर तो पता ही नहीं लगा कि हम कब साठा के पाठा हो गए। ज्योतिषी की भविष्यवाणी भी भूल गए। लेकिन जब सत्तर पार हो गए, तो हमने देखा कि हमारे अनेक साथी भगवान को प्यारे हो गए, हम स्वस्थ–मस्त बने हास्य–व्यंग्य में और अधिक व्यस्त हो गए। मरना तो अलग, बीमार होने के लिए भी अवकाश नहीं मिलता था। धीरे-धीरे जीवन की नैया अस्सी के किनारे आ लगी। अब लोगों ने कहना शुरू कर दिया — 'असिया सो रसिया'। वास्तव में हम कुछ रसीले हो भी गए थे। इतनी उमर में भी अपने को सही–सलामत देख कर हमें खुद ताज्जुब होता। कहीं नज़र न लग जाए, इसलिए हमने कहना शुरू कर दिया कि 'अब हम मरना चाहते हैं।' हमारे मुँह से निकलना था कि लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई।

युवा हास्य कवि सोचने लगे कि बस काका के मरते ही अपनी तूती बोलने लगेगी। साहित्यकार सोचने लगे कि काका की वजह से गीत मर गए हैं और मंच पर हास्य की धारा बहने लगी है, वह समाप्त होगी तो गीतकारों का कल्याण होगा। परिवार के लोग सोचने लगे कि अच्छा है, भगवान सुन ले तो बीमे की रकम मिल जाए। हमें लगने लगा कि अब हमारा वक्त नज़दीक आ गया है अत: ऐसे स्थान पर चले जाना चाहिए जहाँ गंगा नज़दीक हो, क्यों कि गंगा से हमारा लगाव शुरू से ही रहा है। हमने लोगों से कहना शुरू कर दिया कि 'अब हम मरने वाले हैं, इसलिए हाथरस छोड़कर बिजनौर रहा करेंगे। वहाँ गंगा है और हमारी भतीजी के पति डॉ. गिरिराज शरण भी हैं, जो हमें बड़े प्यार से रखेंगे।'

जब हम बिजनौर पहुँचे तो डॉ. गिरिराज बोले—'काका अच्छा हुआ, जो आप इधर आ गए। बिजनौर मरने के लिए बहुत अच्छी जगह है लेकिन यहाँ मेरे चेले कुछ डाक्टर हैं, जो आपको आसानी से नहीं मरने देंगे।' हम निराश हो गए और कुछ दिन वहां बिता कर दिल्ली चले आए। दिल्ली में अपनी दूसरी भतीजी के पति डा. अशोक चक्रधर के घर हम ठहरे।

अशोक चक्रधर बोले—काका आपने मरने की ठान ली है, तो फिर दिल्ली में मरना ठीक रहेगा। नेता टाइप लोग सब राजधानी में ही मरते हैं। आप देख लेना, जिस दिन आपकी मृत्यु होगी, उस दिन मैं सारी दिल्ली बंद करा दूँगा। राजघाट से धोबीघाट तक जुलूस ही जुलूस दिखाई पड़ेगा। केंद्रीय मंत्रिमंडल आपके शव पर पुष्प चढ़ाने आएगा। मैं आपके रथ पर खड़ा होकर कमेंट्री करूँगा जिसे दूरदर्शन वाले दिखाते रहेंगे। आपका हो जाएगा काम और मेरा हो जाएगा नाम। बोलो मंजूर हो तो इंतज़ाम करूँ।

इतने में ही वहाँ कर्णवास गंगा तट वाले एक पंडा आ गए जो गत पचास वर्षों से हमसे परिचित थे। पंडा जी बोले, देखो काका, आप कवि हैं, गंगा प्रेमी हैं और किसी महात्मा से कम नहीं हैं। मरने का विचार आपका उत्तम है, हमारे देश में अनेक मुनियों ने इच्छा मृत्यु का वरण किया है, जब भी आप चाहेंगे तो हम कर्णवास में पहले से ही आपकी चिता सजवा देंगे या चाहेंगे तो जल समाधि दिलवा देंगे। लेकिन जबतक आपके होशहवास दुरुस्त हैं तब तक हमारी राय मानें, तो एक गाय पुन्न कर दें।

हमें पंडित जी की बात जँची नहीं। गर्मी भी काफ़ी पड़ने लगी थी इसलिए मसूरी चले गए। वहाँ नित्य प्रति बड़े–बड़े लोग कैमिल्स बैक रोड़ पर टहलने जाते हैं। उनसे भी हमने चर्चा कर के राय माँगी। उनका कहना था कि 'मैदानी इलाकों में तो सभी मरते हैं लेकिन पहाड़ पर मरना सबके नसीब में नहीं होता। यहाँ मरने का मज़ा ही कुछ और है। यहाँ न लकड़ियों का झंझट है और न चिता सजाने का झगड़ा। डॉक्टर भी आसानी से नहीं मिलता, जो मरते को बचा ले। चार–पाँच मित्र मिल कर लाश को पहाड़ की चोटी से लुढ़का देंगे। चारों ओर बर्फ से ढकी हुई श्वेत धवल चोटियाँ आपका स्वागत करेंगी। बड़े–बड़े तीर्थ यात्रियों की बसें जब यहाँ खड्डे में गिरती हैं तो सभी सीधे स्वर्ग चले जाते हैं। अजी और तो और पांडव तक यहाँ गलने को चले आए थे। आप भी जीवन–मुक्त हो जाएँगे, बार–बार मनुष्य योनि में नहीं भटकना पड़ेगा।'

इस बीच हमें मथुरा रेडियो से एक कार्यक्रम का निमंत्रण मिल गया। हम मथुरा चले आए, वहाँ बृज कलाकेंद्र वाले भैया जी से भेंट हुई। भैया जी से जब बात छिड़ी तो वे बोले —काका, मरने के चक्कर में आप इधर–उधर क्यों भटक रहे हैं, पूरा बंगाल इस शुभकर्म के लिए यहाँ आता है। ब्रज में सभी देवी देवताओं का निवास है। मथुरा में आप मरेंगे तो सीधे मोक्ष को प्राप्त होंगे। उस दिन हम नौटंकी भी करा देंगे। होली दरवाज़े पर झंडा लगवा दिया जाएगा। आप मोक्ष धाम को जाएँगे और हम रबड़ी खुरचन उड़ाएँगे। फिर आपकी पुण्यतिथि पर प्रति वर्ष नगाड़ा बजता रहेगा। चंदा होता रहेगा और धंधा चलता रहेगा। बोलो मंज़ूर हो तो आख़िरी घुटवा दूँ बादाम–पिस्ते की केसरिया ठंडाई। हमने सोचकर जवाब देने के लिए कहते हुए उनसे विदा ली और हाथरस आ गए।

हाथरस में हमारे मरने की चर्चा आग की तरह फैल गई। सभी शुभचिंतक इकट्ठे हो गए। हमारा बेटा लक्ष्मी नारायण बोला — काकू, आपको सब लोग बहका रहे हैं, आपकी कुंडली साफ़ कह रही है कि आप ज़मीन पर मर ही नहीं सकते। अभी तो आपको एक अमरीका यात्रा और करनी है। मैं प्रोग्राम बना देता हूँ । जाने से पहले पचास लाख का बीमा भी करा दूँगा। अगर हवाई जहाज़ गिर गया, तो आपको बिना कष्ट मौत मिलेगी, और इधर मैं बीमा की रकम डकार जाऊँगा। ब्याज से प्रतिवर्ष श्राद्ध कर दिया करूँगा, फिर सैकड़ों विशिष्ट व्यक्तियों के साथ मरने का मज़ा ही कुछ और है।

इस चकल्लस में कुछ लोगों ने गोष्ठी जमा ली। कविता पाठ हुए और पत्रकार सम्मेलन हुआ। हमें महसूस हुआ कि अभी तो हमारी आवाज़ में पूरी कड़क है, तभी सामने बैठी एक बुढ़िया पर हमारी नज़र गई, जिसकी सफ़ेद ज़ुल्फ़ों पर लाइट मार रही थी। हम उस पर मर गए और मंच पर ही अड़ गए, मित्र लोग ताड़ गए और सबने मिलकर घोषणा कर दी. . .काका अठासी के हो गए हैं। अब पूरा शतक बनाएँगे और हाथरस में ही मरेंगे। शोर–शराबा सुनकर काकी आ गईं तो सब भाग लिए और हम भीगी बिल्ली बनकर उसके साथ बेडरूम में यह कहते हुए चले गए. . .

बुढ़िया मन में बस गई, लाइट मारें केस।
चल काका घर आपुने, बहुत रह्यो परदेस।।

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

गुजरात म्हारी यादां मं







गली गली में नुक्कड़ नाटक


पूर्व हो या पश्चिम - यों तो नाटक और रंगमंच की शुरुआत ही खुले में हुई अर्थात नुक्कड़ ही वह पहला स्थान था जो नाटकों के खेलने में इस्तेमाल हुआ। आदिम युग में सब लोग दिन भर शिकार करने के बाद शाम को अपने-अपने शिकार के साथ कही खुले में एक घेरा बनाकर बैठ जाते थे और उस घेरे के बीचो-बीच ही उनका भोजन पकता रहता, खान-पान होता और वही बाद में नाचना-गाना होता।


इस प्रकार शुरू से ही नुक्कड़ नाटकों से जुड़े तीन ज़रूरी तत्वों की उपस्थिति इस प्रक्रिया में भी शामिल थी - प्रदर्शन स्थल के रूप में एक घेरा, दर्शकों और अभिनेताओं का अंतरंग संबंध और सीधे-सीधे दर्शकों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़े कथानकों, घटनाओं और नाटकों का मंचन। इसी का विकसित रूप हमें तब भी देखने को मिलता है जब आज से लगभग ढ़ाई-तीन हज़ार वर्ष पहले यूनान में थेस्पिस नामक अभिनेता घोड़ागाड़ी या भैसागाड़ी में सामान लादकर, शहर-शहर घूमकर सड़कों पर, चौराहों पर अथवा बाज़ारों में अकेला ही नाटकों का मंचन किया करता था।

स्वयं भारत में भी इसी समय के आस-पास अथवा इससे भी पूर्व से लव और कुश नाम के दो कथावाचकों के माध्यम से रामायण महाकाव्य को जगह-जगह जाकर, गाकर सुनाने की परंपरा का उल्लेख मिलता है। ये लव-कुश राम के पुत्रों के रूप में तो प्रसिद्ध हैं ही, बाद में इन्हीं के समांतर नट या अभिनेता को भी हमारे यहां कुशीलव के नाम से ही जाना जाने लगा। संभवत: यही कारण है कि नाटकों के लगातार खुले में मंचित होते रहने के मद्देनज़र भरत ने भी अपने नाट्यशास्त्र में दशरूपक विवेचन के अंतर्गत 'वीथि' नामक रूपक का भी उल्लेख किया है। आज भी आंध्र प्रदेश में लोकनाट्य परंपरा की एक शैली का नाम की 'वीथि नाटकम' मिलता है और आधुनिक नुक्कड़ नाटक अथवा स्ट्रीट थिएटर को भी इसी नाम से जाना जाता है।

मध्यकाल में सही रूप में नुक्कड़ नाटकों से मिलती-जुलती नाट्य-शैली का जन्म और विकास यदि भारत के विभिन्न प्रांतों, क्षेत्रों और बोलियों-भाषाओं में लोक नाटकों के रूप में हुआ तो उसी के समांतर पश्चिम में भी चर्च अथवा धार्मिक नाटकों के रूप में इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी और स्पेन आदि देशों में ऐसे नाटकों का प्रचलन शुरू हुआ जो बाइबिल की घटनाओं पर आधारित होते थे और मूलत: धर्म के प्रचार के लिए ही खेले जाते थे। ये नाटक भी खुले में, मैदानों, और चौराहों और बाज़ारों में ही मंचित किए जाते थे और दिन की रोशनी में ही, जबकि हमारे यहां नाटक लगभग अपने आरंभ काल से ही ज़्यादातर रात में ही खेले जाते थे। इसके लिए हमारे यहां की तत्कालीन जीवन-व्यवस्था तो ज़िम्मेदार थी ही, अर्थात दिन भर खेतों में काम करने के बाद, रात में ही उन्हें ऐसे मनोरंजन की ज़रूरत पड़ती थी जो उनकी थकान मिटा सके।

इतना ही नहीं, रात के साथ ही इस तरह के प्रदर्शनों, मनोरंजनों का जुड़ना समाज में उपस्थित एक सुरक्षित जीवन-पद्धति की तरफ़ भी इंगित करता है जबकि पश्चिम में स्थिति ठीक इसके विपरीत थी। वहां मध्यकाल में, दिन में नाटकों के मंचन की आवश्यकता का जन्म ही इसलिए हुआ था कि लोग शाम ढलने से पहले ही सुरक्षित अपने घरों को लौट सकें। मध्यकाल में आविर्भूत इन्हीं धार्मिक नाटकों ने आज के नुक्कड़ नाटकों से जुड़े एक और आवश्यक तत्व को जन्म दिया और वह है प्रचार के लिए नाटक विधा का प्रयोग।

वास्तव में प्रचार ही वह मूल मंत्र है, जो नुक्कड़ नाटकों के वर्तमान स्वरूप, संरचना और इतिहास से अनिवार्य रूप से जुड़ा है। आज जिस रूप में हम नुक्कड़ नाटकों को जानते है, उनका इतिहास भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान कौमी तरानों, प्रभात फेरियों और विरोध के जुलूसों के रूप में देखा जा सकता है। इसी का एक विधिवत रूप 'इप्टा' जैसी संस्था के जन्म के रूप में सामने आया, जब पूरे भारत में अलग-अलग कला माध्यमों के लोग एक साथ आकर मिले और क्रांतिकारी गीतों, नाटकों व नृत्यों के मंचनों और प्रदर्शनों से विदेशी शासन एवं सत्ता का विरोध आरंभ हुआ। इस प्रकार किसी भी गल़त व्यवस्था का विरोध और उसके समांतर एक आदर्श व्यवस्था क्या हो सकती है - यही वह संरचना है, जिस पर नुक्कड़ नाटक की धुरी टिकी हुई है। कभी वह किस्से-कहानियों का प्रचार था, कभी धर्म और कभी राजनैतिक विचारधारा। किसी भी युग और काल में इस तथ्य को रेखांकित कर सकते हैं। आज तो स्थिति यह हो गई है कि बड़ी-बड़ी व्यावसायिक-व्यापारिक कंपनियाँ अपने उत्पादनों के प्रचार के लिए नुक्कड़ नाटकों का प्रयोग कर रही हैं, सरकारी तंत्र अपनी नीतियों-निर्देशों के प्रचार के लिए नुक्कड़ नाटक जैसे माध्यम का सहारा लेता है और राजनीतिक दल चुनाव के दिनों में अपने दल के प्रचार-प्रसार के लिए इस विधा की ओर आकर्षित होते हैं। ऐसे में नुक्कड़ नाटकों के बहुविध रूप और रंग दिखाई पड़ते है और ऐसे में इस विधा की वह सही पहचान कहीं खो-सी गई है। यह कुछ ऐसा ही है जैसे क्रिकेट में एक दिवसीय फटाफट क्रिकेट ने पांच दिवसीय शास्त्रीय क्रिकेट को पृष्ठभूमि में धकेल दिया है, वीडियो-दूरदर्शन जैसे तुरत-फुरत माध्यमों ने फ़िल्मों के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है और रोज़ाना पैदा हो रहे खिचड़ी-संगीत ने शुद्ध शास्त्रीय और कर्णप्रिय संगीत की परंपरा को ही नष्ट कर दिया है।

आख़िर नुक्कड़ नाटक की वह अपनी असली पहचान क्या थी? यह एक ऐसा माध्यम है जो स्वयं लोगों के बीच पहुँचता है, उन्हीं की समस्याओं से रू-ब-रू होता है और उन्हीं की भाषा में संवाद करता है। उसकी भूमिका मुख्यत: विरोध की रहती है क्योंकि उसका उद्देश्य किसी भी तत्कालीन व्यवस्था में ग़लत हो रही बातों की तरफ़ जनमानस का ध्यान आकृष्ट करके उन्हें उसके प्रति जागृत करना है और यदि संभव हो तो उस ग़लत व्यवस्था से लड़ने के लिए तैयार करना है। दूसरे शब्दों में कहे तो नुक्कड़ नाटक की मूल प्रकृति एक उत्प्रेरक की है जो दर्शकों को किसी भी समस्या से साक्षात्कार कराकर यह भी अपेक्षा रखता है कि वे व्यवहार के स्तर पर भी कोई निर्णय लेंगे। एक दूसरे रूप में वह ब्रेख्त के उस महाकाव्यात्मक रंगमंच के 'अलगाव सिद्धांत' से भी मिलता-जुलता है, जहां दर्शक से अपेक्षा की जाति है कि वह कथा के बहाव के साथ न बह जाए वरन उससे दूरी बनाए रखकर उसे देखे और उस पर सोच-विचार कर अपने जीवन में क्रियान्वित करे। नुक्कड़ नाटक की इस मूल प्रकृति ने उसके स्वरूप और संरचना को भी काफ़ी हद तक सुनिश्चित कर दिया-खुले में, चौराहों और बाज़ारों में आती-जाती भीड़ को आकर्षित करना, बहुत कम समय में अपने संदेश को प्रसारित करना और वैयक्तिक चरित्र-चित्रण की बजाय अभिनेताओं की सामूहिक भागीदारी से कथ्य को आगे बढ़ाना। मंचीय तामझाम के मोह को छोड़ते हुए मात्र अभिनेताओं के माध्यम से अथवा अधिक से अधिक एक-आध मंच उपकरणों के प्रयोग से काम चलाना। इस प्रकार नुक्कड़ नाटक सचमुच में एक यायावर मंडली की अपेक्षा रखता है, जो तेजी से क़स्बों, शहरों और गांव-गांव जाकर छोटे-छोटे नाटकों से लोगों की ही अपनी समस्याओं के प्रति उन्हें जागरूक बना सके। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस पूरी रचना प्रक्रिया में गीत, संगीत और कभी-कभी नृत्य का भी अपना विशेष योगदान रहता है। यदि ये तत्व अलग से नहीं भी होते तो भी संवादों को बार-बार दोहराने के क्रम से एक शैलीबद्धता अपने आप बनती चली जाती है। कहने का अभिप्राय यही है कि नुक्कड़ नाटक मूलत: एक वैयक्तिक विधा न होकर समूह को अपने साथ लेकर चलती है अर्थात वह अनिवार्य रूप से एक कोरस की अपेक्षा रखती है।

इसलिए नुक्कड़ नाटक एक बहुत ही सशक्त और जीवंत माध्यम है और यह अकारण नहीं कि भारत हो या यूरोप के कुछ पश्चिमी देश - उन्होंने अपनी राजनैतिक विचारधाराओं के प्रचार-प्रसार के लिए इस विधा को हाथों-हाथ लिया। भारत में अपने वर्तमान रूप में नुक्कड़ नाटकों का इतिहास यदि पचास-साठ साल पुराना है तो पश्चिम में भी तीस साल पहले ही इस तरह की शैली में नाटक खेले जाने लगे। यों भारत में भारतेंदु के 'अंधेर नगरी' को भी इस शैली का पहला आधुनिक नुक्कड़ नाटक माना जा सकता है, जिसका पहला मंचन १८८१ में दशाश्वमेध घाट, बनारस में खुले में हुआ था। बहरहाल, आज़ादी के आंदोलन के दौरान नुक्कड़ नाटकों ने 'इप्टा' के माध्यम से अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उसके बाद भी आज तक कमोबेश उसी रूप में नुक्कड़ नाटकों का मंचन और प्रचलन जारी है।

लेकिन इसके साथ ही नुक्कड़ नाटकों को कुछ सवालों का सामना भी करना पड़ रहा है और वह इस रूप में कि नुक्कड़ नाटक महज़ प्रचार का ही हथकंडा बनकर रह जाए या फिर उसका भी अपना कोई व्याकरण और सौंदर्यशास्त्र हो सकता है? क्या कारण है कि कथ्य और शिल्प के स्तर पर सभी नुक्कड़ नाटकों का चेहरा एक-सा ही होता जा रहा है? क्या चौराहों, बाज़ारों में लोगों की भीड़ को एकत्रित करके ज़ोर-ज़ोर से एक ही बात को चीख-चिल्ला अथवा गाकर बताने का नाम ही नुक्कड़ नाटक है या कि उसके लिए भी अभिनेताओं की कोई विशेष प्रशिक्षण पद्धति हो सकती है? विरोध और रोज़मर्रा की समस्याओं से अलग भी गहरे व गूढ़ बातों में जाकर क्या नुक्कड़ नाटक उनकी जांच-पड़ताल नहीं कर सकता?

आज से सोलह साल पहले १९८३ में भारत भवन, भोपाल और केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में भोपाल में चार-पांच दिनों का एक नुक्कड़ नाटक महोत्सव हुआ था, जिसमें देश भर से बीस-पच्चीस नुक्कड़ नाट्य मंडलियों ने शिरकत की थी और उपर्युक्त समस्याओं पर भी विचार-विमर्श किया था। उसके बाद फिर कभी नुक्कड़ नाटकों पर ऐसा आयोजन और बहस हुई हो- मेरी जानकारी में नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उस महोत्सव में भी और उसके बाद के कुछ वर्षों में कुछ नाट्य मंडलियों ने निश्चित ही नुक्कड़ नाटकों के बने बनाए ढर्रे को छोड़कर अत्यंत कल्पनाशील मुहावरे में नुक्कड़ नाटकों की रचना और मंचन किए और उनका अपेक्षित असर भी पड़ा। क्या यह अपने आप में एक नाटकीय विडंबना नहीं है कि जहां आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक स्तर पर इस शताब्दी के अंतिम दशक में इतनी उथल-पुथल हो रही है, वहां नुक्कड़ नाटकों की वह प्रभावी भूमिका लगभग उदासीन-सी होती जा रही है। अब वह समस्याओं और विचारधारा का वाहक उतना नहीं रह गया है जितना कि बड़ी-बड़ी व्यापारिक कंपनियों के उत्पादनों के प्रचार का एक आकर्षक माध्यम। आज अधिकांश रंगकर्मी नुक्कड़ नाटकों के इसी विकल्प से जुड़े है और बाकायदा अपनी रोज़ी-रोटी पा रहे हैं।

आख़िर ऐसा क्यों हुआ? यदि हम नुक्कड़ नाटकों के संदर्भ में इसका उत्तर खोजने की कोशिश करें तो निश्चित ही कुछ कारण दिए जा सकते हैं। मेरे विचार में नुक्कड़ नाटकों के प्रति बढ़ती उदासीनता का सबसे बड़ा कारण यही है कि शायद आरंभ से ही नुक्कड़ नाट्य विधा को एक बहुत ही सुविधाजनक रास्ता मान लिया गया था। सुविधाजनक इस अर्थ में कि कुछ लोग जुट गए, चौराहे पर पहुँच गए और कुछ भी उछल-कूद, शोर-शराबा करके आगे बढ़ गए। इसी से जुड़ा दूसरा पक्ष यह भी है कि जो लोग इस विधा से विचारधारा के तहत जुड़े थे, उनमें से अधिकांश में उस विचारधारा के प्रति स्वयं में ही कोई प्रतिबद्धता नहीं थी। और सबसे बड़ा कारण यह भी रहा कि जिस विचारधारा की प्रतिबद्धता के संदर्भ में रंगकर्मियों ने व्यवस्था के विरोध में नुक्कड़ नाटक किए, बाद में उसी विचारधारा की व्यवस्था के स्थापित होने के बाद उनके सामने इस दुविधा ने जन्म लिया कि अब वे किसका विरोध करें? इस उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल और केरल का नाम लिया जा सकता है, जहां वामपंथी विचारधारा के सत्ता में आने के बाद विरोध के रंगमंच की आवश्यकता ही समाप्त हो गई। यदि चाहें तो कह सकते हैं कि कुछ हद तक प्रचार तंत्र के रूप में संचार माध्यमों की बढ़ती लोकप्रियता ने भी नुक्कड़ नाटकों के चलन-प्रचलन को धक्का पहुँचाया है।

उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में यह जिज्ञासा सहज-स्वाभाविक है कि ऐसे में नुक्कड़ नाटकों का भविष्य क्या होगा? यों तो यह प्रश्न नाटक और रंगमंच जैसी विधा को संपूर्ण रूप से भी संबोधित किया जा सकता है क्योंकि रंगमंच स्वयं में ही एक क्षणभंगुर माध्यम है अर्थात वह दिन-प्रतिदिन पैदा होता है और उसी दिन उसकी मृत्यु भी हो जाती है। उस पर नुक्कड़ नाटक के साथ वह ख़तरा तो और भी गहरे रूप से जुड़ा हुआ है क्योंकि एक तो अपने कलेवर में वह बहुत छोटा होता है और दूसरे तात्कालिक समस्याओं पर आधारित होने के कारण उसका प्रभाव उतनी ही जल्दी समाप्त भी हो जाता है। इसीलिए यह भी ज़रूरी है कि उसके अस्तित्व को कैसे बचाकर रखा जाए। इस दिशा में ठोस प्रयत्न किए जाने चाहिए। सबसे पहले इसकी शुरुआत स्वयं उन मंडलियों के सदस्यों की तरफ़ से होनी चाहिए, जो नुक्कड़ नाटकों को मंचित करते रहे हैं और अभी भी सक्रिय हैं। उन्हें एक तरह से अपना आत्मालोचन करना होगा कि वे नुक्कड़ नाटक जैसी विधा में क्यों काम कर रहे हैं? यदि कर रहे हैं तो कैसा काम कर रहे हैं? क्या उन्हें इसके लिए किसी प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता महसूस नहीं होती? यदि हां, तो उसके लिए क्या किया जाना चाहिए? दूसरी पहल नाटककारों की तरफ़ से होनी चाहिए। देखा गया है कि नुक्कड़ नाटक को बहुत ही हल्की-फुलकी विधा मानकर रचनाकार बहुत जल्दी-जल्दी इस ओर प्रवृत्त नहीं होते। अत: कोशिश इस बात की भी होनी चाहिए कि नए और सशक्त आलेख सामने आएँ, जिन्हें मंचित करने में रंगकर्मियों को भी रचनात्मक चुनौतियों का सामना करना पड़े। तीसरा और अंतिम विकल्प यह भी हो सकता है कि राज्य और केंद्रिय स्तर पर नुक्कड़ नाटकों के मंचन की नियमित प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाएं। आज भी यदा-कदा जब दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न महाविद्यालयों में आयोजित ऐसी नुक्कड़ नाट्य प्रतियोगिताओं में जाने का अवसर मिलता है तो प्राय: ऐसे आलेखों से सामना होता है जो सचमुच में आपको बाहर-भीतर से झिंझोड़कर रख देते हैं और सोचने पर विवश करते हैं। यदि ऐसे ताज़े आलेखों की शुरुआत आज के युवा छात्र लेखकों की तरफ़ से हो सकती है तो कोई कारण नहीं कि हमारे अनुभवी रचनाकार और भी ज़्यादा जटिल, संश्लिष्ट और गहरे नाट्यलेखों का सृजन न करें।

यदि ऐसा संभव हो जाए तो नुक्कड़ नाटक का भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल होगा और उनके मंचन के उसी दौर की वापसी होगी, जिसे नुक्कड़ नाटकों का स्वर्ण युग कहा जाता है अर्थात पचास, साठ और सत्तर के तीन दशक वाला दौर।

चुदाई का भूत

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एक मस्त मस्त सी कहानी

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गुरुवार, 20 नवंबर 2008

इमेज ऑफ़ सेक्सी ब्लोगर





















































































des और दूनिया में आतंकवाद की जडे जितनी गहरी होती जा रही हैं, उनसे लडने के लिए सुरक्षा एजेंसियाँ उतनी ही मुस्तैद हो रही हैं. आतंकवाद के कई चेहरे हैं. आज के आतंकवादी ना केवल विस्फोटकों का सहारा लेते है, बल्कि उनकी पहुँच बायोलोजिकल, केमिकल और रेडियोलोजिकल हथियारों तक भी है. इसके अलावा ये संगठन ड्रग्स की तस्करी कर पैसा कमाते हैं और फिर उसका उपयोग हथियार और गोला बारूद खरीदने मे करते हैं. लेकिन अब इस तरह के खतरों को पकडने के लिए एक नई मशीन का आविष्कार किया गया है. अमरीका लोरेंस लिवरमोर नेशनल लेबोरेटरी ने इस मशीन को बनाया है. यह मशीन किसी भी प्रकार के विस्फोटक पदार्थों की पहचान कर सकता है. यही नहीं यह मशीन किसी भी केमिकल, बायोलोजिक और रेडियोलोजिक पदार्थ की पहचान कर सकता है और ड्रग्स भी पहचान सकता है.इस मशीन का नाम स्पाम्स (SPAMS - Singale Particle Aerosol Mass Spectrometry) रखा गया है. परीक्षणों के दौरान इस मशीन ने उल्लेखनीय कार्य किया और सुरक्षा एजेंसियों का दावा है कि इस मशीन का व्यापक उपयोग आतंकवाद विरोधी मुहिम मे किया जा सकता है. इस मशीन को बनानी वाली टीम के सदस्य पॉल स्टील के अनुसार,"हमने एक ऐसी मशीन बनाई है जो बहुत ही सवेंदनशील है. इससे गलत अलार्म जाने की सम्भावना नहिवत है और यह बहुत तेज भी है." यह मशीन मात्र 30 सेकंड में किसी भी पदार्थ की पहचान कर सकती है. अमरीका में आतंकवाद का सामना करने के लिए तरह तरह की मशीनों और कानूनों का सहारा लिया जा रहा है. दुर्भाग्य से भारत में, जो कि आतंकवाद से सबसे अधिक ग्रस्त है, इस तरह की चीजों का नितांत अभाव देखने को मिलता है।

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008